बुधवार, 28 दिसंबर 2016

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

॥ चौपाई ॥ बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥ अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥ (१) भावार्थ:- मैं गुरु जी के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुन्दर स्वादिष्ट, सुगंध युक्त तथा अनुराग रूपी रस से परिपूर्ण है, वह अमर संजीवनी बूटी रुपी सुंदर चूर्ण के समान है, जो समस्त परिवारिक मोह रुपी महान रोगों का नाश करने वाला है। (१) सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥ जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥ (२) भावार्थ:- वह चरण-रज शिव जी के शरीर पर सुशोभित निर्मल भभूति के समान है, जो कि परम कल्याणकारी और आनन्द को प्रदान करने वाली है। उस चरण-रज से मन रूपी दर्पण की मलीनता दूर हो जाती है और जिसके तिलक लगाने से प्रकृति के सभी गुण वश में हो जाते है। (२) श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥ दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥ (३) भावार्थ:- श्री गुरु जी के चरणों के नख प्रकाशित मणियों के समान है, जिनके स्मरण मात्र से ही हृदय में ज्ञान रुपी दिव्य प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। उस प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली होते हैं जिनके हृदय में वह दिव्य प्रकाश प्रवेश कर जाता है। (३) उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥ सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥ (४) भावार्थ:- उस प्रकाश से हृदय के दिव्य नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि का दुःख रुपी अन्धकार मिट जाता हैं। उस प्रकाश से हृदय रूपी खान में छिपे हुए श्री रामचरित्र रूपी मणि और मांणिक स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। (४) ॥ दोहा ॥ जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥ (१) भावार्थ:- जिस प्रकार आश्चर्यचकित तरीके से मनुष्य पर्वतों, बनों और पृथ्वी के अंदर छिपे रत्नों को पाकर समृद्धि को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार उन मणियों के प्रकाश रुपी सुरमा को अपने दिव्य नेत्रों में लगाकर साधक परम-सिद्धि को प्राप्त कर जाता हैं। (१) ॥ चौपाई ॥ गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥ तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥ (१) भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरणों की रज सौम्य और सुंदर सुरमा के समान है, जो दिव्य नेत्र के दोषों का नाश करने वाला है। उस रज रुपी सुरमा से विवेक रूपी नेत्र को निर्मल करके मैं संसार रूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ। (१) ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

वास्तुशास्त्र के अनुसार गणेश जी की सूंड बाएं हाथ की ओर घुमी हुई होनी चाहिए। वास्तुशास्त्र के अनुसार गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीरों को घर में लगाते समय यह ध्यान रखें कि गणेश जी को किस दिशा में और कहां पर विराजमान करना आपके लिए लाभप्रद रहेगा। गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीर जब घर लाएं तो सबसे पहले यह ध्यान रखें कि गणेश जी की सूंड बाएं हाथ की ओर घुमी हुई हो। दाएं हाथ की ओर मुड़ी हुई सूंड वाली गणेश जी की प्रतिमा की पूजा से मनोकामना सिद्ध होने में देर लगती है। क्योंकि इस तरह की सूंड वाले गणेश जी देर से प्रसन्न होते हैं। गणेश जी एक हाथ वरदान की मुद्रा में हो और साथ में उनका वाहन मूषक भी होना चाहिए। शास्त्रों में देवताओं का आवाहन इसी रुप में होता है। जो लोग संतान सुख की कामना रखते हैं उन्हें अपने घर में बाल गणेश की प्रतिमा या तस्वीर लानी चाहिए। नियमित इनकी पूजा से संतान के मामले में आने वाली विघ्न बाधाएं दूर होती है। घर में आनंद उत्साह और उन्नति के लिए नृत्य मुद्रा वाली गणेश जी की प्रतिमा लानी चाहिए। इस प्रतिमा की पूजा से छात्रों और कला जगत से जुड़े लोगों को विशेष लाभ मिलता है। इससे घर में धन और आनंद की भी वृद्घि होती है। गणेश जी आसान पर विराजमान हों या लेटे हुए मुद्रा में हों तो ऐसी प्रतिमा को घर में लाना शुभ होता है। इससे घर में सुख और आनंद का स्थायित्व बना रहता है। सिंदूरी रंग वाले गणेश को समृद्घि दायक माना गया है, इसलिए इनकी पूजा गृहस्थों एवं व्यवसायियों के लिए शुभ माना गया है। वास्तु विज्ञान के अनुसार गणेश जी को घर के ब्रह्म स्थान (केंद्र) में, पूर्व दिशा में एवं ईशान में विराजमान करना शुभ एवं मंगलकारी होता है। इस बात का ध्यान रखें कि गणेश जी की सूंड उत्तर दिशा की ओर हो। गणेश जी को दक्षिण या नैऋत्य कोण में नहीं रखना चाहिए। इस बात का ध्यान रखें कि घर में जहां भी गणेश जी को विराजमान कर रहे हों वहां कोई और गणेश जी की प्रतिमा नहीं हो। अगर आमने सामने गणेश जी प्रतिमा होगी तो यह मंगलकारी होने की बजाय आपके लिए नुकसानदेय हो जाएगी।

श्री गणेशाय नमः
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सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

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सत्यम् शिवम् सुंदरम्

रामानन्द (रामावत सम्प्रदाय ) क्र.सं. द्वारा गौत्र 1 अग्रावत 2 अनन्तानन्दी 3 अनुभवानन्दी – लश्करी गौत्र के बारे सक्षिप्त टिप्पणी निम्नलिखित है।। लश्करी गौत्र के अनुसार लश्करी चार है परंतु मुख्य रूप से "अनुभावानंदी"है बाकी के तिन निम्नलिखित है (1) .भावानंदी (2)सुखानंदी (3) सुरसरानंदी लश्करी गौत्र का उदय जगद्धगुरू वीरजानंदाचार्यजी के परम् एवं कृपापात्र शिष्य श्रीबालानंदाचार्यजी महाराज के चरण कमलो से इस गौत्र का उदय हुआ है। बात उस समय की है जब शैव ब्राह्मणो ने वैष्णव ब्राह्मणो पर अत्याचार क्या यह बात गुरूदेव को पता नही था परंतु जब गुरूदेव को पता चला की वैष्णवो पर घोर अत्याचार हो रहा है तब गुरूदेवश्रीबालानंदाचार्यजी चौकी पर विराजमान होकर अपने मष्त पर उध्व्रपुड्रतिलक कर रहे थे उस समय तिलक में रक्त तिलक अर्थात् कुंकुम् का तिलक जल्दबाजी न क्या बल्कि उस जगह शुष्क चंदन का तिलक कर दिया ओर शैव ब्राह्मणो पर यौद्ध कर दिया।। ओर उस युद्ध में समस्त वैष्णव (लश्करी)अर्थात् विजय हो गये।। इस कारण उस समय गुरू देव बालानंदजी के कहने से इस गौत्र का नाम "लश्करीअनुभावानंदी"पडा ओर उस तिलक का नाम भी "लश्करीतिलक "पड गया।। आज भी अनुभावानंदीयो को लश्करी कहा जाता है ओर आज भी लश्करी गौत्र के अनुयाई यही तिलक करते है।। लश्कर का अर्थ है सेना, व लश्करी का अर्थ है सैनिक ! प्रश्न है कि लश्करी क्या है व कौन हैं तथा इनका नाम लश्करी क्यों पड़ा ? लश्करी वे साधु, सन्यासी थे जो अनुभवानन्दाचार्य जी द्वारा गठित लश्कर (सेना) में सम्मीलित थे, बात उस समय की है जब दशनामी, शैव व शाक्त वैष्णव धर्म का समूल विनाश करने व उसे दबाने के लिये वैष्णवों के रक्त के प्यासे थे, वे वैष्णवजन को जहां मिलते जान से मार डालते थे ! इन परिस्थितियों में ज.गु.श्री रामानन्दाचार्य जी के प्रशिष्य श्री अनुभवानन्दाचार्य ने लश्कर (सेना) की स्थापना की ताकी इन शैवो, दशनामीयों व शाक्तों से वैष्णव धर्म की रक्षा की जा सके ! इस लश्कर में श्री भावानन्दाचार्य जी के शिष्य, अनुभनानन्दाचार्य जी के शिष्य, सुरसुरानन्दाचार्य जी के शिष्य, दानोदराचरार्य जी के शिष्य, हनुमदाचार्र्य जी के शिष्य, व केवलरामाचार्य जी के शिष्य, क्रमश: भावानन्दी, अनुभवानन्दी, सुरसुरानन्दी, धून्ध्यानन्दी, हनुमानी, व कुबावत आदि को मिलाकर संयुक्त नाम लश्करी पड़ा ! जिनके द्वाराचार्य जी भी हैं व द्वारा स्थान भी ! वर्तमान इस गौत्र कि द्धारापिठ जयपुर के चादँपोल में "बालानंदमठ" के नाम से प्रसिद्ध है ओर वर्तमान आचार्य जगद्धगुरू श्री1008लक्ष्मणनंदाचार्यजी है इनके गुरू श्रीरामचरणाचार्यजी थे।। बालानंदमठ की परम्परा- बालानंदाचार्यजी गौविन्दनंदाचार्यजी गंभिरानंदाचार्यजी सेवानंदाचार्यजी रामानन्दाचार्यजी ग्यानानंदाचार्यजी माधवनंदाचार्यजी रामकृष्णनंदाचार्यजी रामचरणानंदाचार्यजी लक्ष्मणनंदाचार्यजी महाराज जय श्रीराम बालानंदाचार्यजी की मठ परम्परा अब अनुभावानंदाचार्यजी मठ परम्परा अनुभावानंदाचार्यजी कमनंनाचार्यजा विमलानंदाचार्यजी रामसुधिरानंदाचार्यजी विचित्रानंदाचार्यजी विठ्ठलानंदाचार्यजी वल्लभानंदाचार्यजी ब्रह्मानंदाचार्यजी विरजानंदाचार्यजी बालानंदाचार्यजी वल्लभानंदाचार्यजी द्धारा सग्रहित 444श्लोको का "विष्णु भक्ति चन्द्रोदय"आज भी बालानंदमठ में पुस्तकालय में उपलब्ध है। 4 अलखानन्दी 5 कर्मचन्दी 6 कालू जी 7 कीलावत 8 कुबावत 9 खोजी जी – खोजीजी गौत्र की जानकारी -श्रीसम्प्रदाय सरोज विभाकर आचार्य-चूणामणि श्रीखोजी द्धारापिठ संस्थापक जगद्धगुरू सर्वतन्त्र श्रीचतुर्दास,श्रीराघवेन्द्रदासाचार्य चरण आदिक नामधेयवान अन्नत स्वामी श्रीखजोजी महाराज श्रीसम्प्रदाय के महान् संत हो गये है।आपका जन्म सोलहवीँ सदी में मार्गर्शीष में सुदी पुर्णीमा के दिन राजस्थान के किशनगढ जिले के अन्तर्गत ईटाखोई ग्राम निवासी वत्स गोत्रिय श्रीचेतनदासजी लापस्या जोशी के यहाँ एक श्रीवैष्णव महात्मा की सेवा के प्रतिफल स्वरूप हुआ था आप अन्नय श्रीसद्गरू चरणाविन्द निष्ठ भावुक प्रविण महापुरूष थे। श्रीस्वामीजी खोजीजी महाराज एसे ही निर्मल संत थे,आपके श्रीगुरूदेव स्वामीमाधवदासजी महाराज बडे ही प्रभु सेवा परायण संत थे,आपने प्रथम ही सभी शिष्यों को सुचित कर रखा था कि,"में जब दिव्यधाम में आराध्य श्रीसितारामजी की सेवा में प्राप्ति होगी तब मंदिर में घडीघण्टे अपने आप ही बज उठंगे"परंन्तु आपके देहावासन पश्चात् ऐसा नही हुआ।इसका कारण अपने शिष्य की निष्ठा का प्रभाव विस्तार करना था ओर भक्त की अन्तिम अणु मात्र भी अभिलाषा प्रभु पुर्ण करते है यह प्रत्यक्ष दिखलाना था। श्रीराघवेन्द्रदासजी(खजोजी)महाराज कही बाहर गये थे।प्रभु कृपा से ठीक उसी समय स्थान में

रामावत समप्रदाय