बुधवार, 28 दिसंबर 2016
गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016
ओम जय जगदीश हरे' की रचना किसने की और कब? ओम जय जगदीश हरे की रचना किसने की और कब? ओम जय जगदीश हरे आरती गीत के रचयिता थे पं. श्रध्दाराम शर्मा फिल्लौरी। प. श्रध्दाराम शर्मा का जन्म 1837 में पंजाब के लुधियाना के पास फिल्लौर में हुआ था। 1870 में उन्होंने ओम जय जगदीश की आरती की रचना की। लगता है उन्हें जय जगदीश हरे शब्द की प्रेरणा जयदेव के गीत गोविन्द की इस पंक्ति से मिली थी प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम् ॥ विहितवहित्रचरित्रमखेदम्॥ केशवाधृतमीन शरीर जय जगदीश हरे॥
बुधवार, 26 अक्टूबर 2016
॥ चौपाई ॥ बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥ अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥ (१) भावार्थ:- मैं गुरु जी के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुन्दर स्वादिष्ट, सुगंध युक्त तथा अनुराग रूपी रस से परिपूर्ण है, वह अमर संजीवनी बूटी रुपी सुंदर चूर्ण के समान है, जो समस्त परिवारिक मोह रुपी महान रोगों का नाश करने वाला है। (१) सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥ जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥ (२) भावार्थ:- वह चरण-रज शिव जी के शरीर पर सुशोभित निर्मल भभूति के समान है, जो कि परम कल्याणकारी और आनन्द को प्रदान करने वाली है। उस चरण-रज से मन रूपी दर्पण की मलीनता दूर हो जाती है और जिसके तिलक लगाने से प्रकृति के सभी गुण वश में हो जाते है। (२) श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥ दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥ (३) भावार्थ:- श्री गुरु जी के चरणों के नख प्रकाशित मणियों के समान है, जिनके स्मरण मात्र से ही हृदय में ज्ञान रुपी दिव्य प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। उस प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली होते हैं जिनके हृदय में वह दिव्य प्रकाश प्रवेश कर जाता है। (३) उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥ सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥ (४) भावार्थ:- उस प्रकाश से हृदय के दिव्य नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि का दुःख रुपी अन्धकार मिट जाता हैं। उस प्रकाश से हृदय रूपी खान में छिपे हुए श्री रामचरित्र रूपी मणि और मांणिक स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। (४) ॥ दोहा ॥ जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥ (१) भावार्थ:- जिस प्रकार आश्चर्यचकित तरीके से मनुष्य पर्वतों, बनों और पृथ्वी के अंदर छिपे रत्नों को पाकर समृद्धि को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार उन मणियों के प्रकाश रुपी सुरमा को अपने दिव्य नेत्रों में लगाकर साधक परम-सिद्धि को प्राप्त कर जाता हैं। (१) ॥ चौपाई ॥ गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥ तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥ (१) भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरणों की रज सौम्य और सुंदर सुरमा के समान है, जो दिव्य नेत्र के दोषों का नाश करने वाला है। उस रज रुपी सुरमा से विवेक रूपी नेत्र को निर्मल करके मैं संसार रूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ। (१) ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
वास्तुशास्त्र के अनुसार गणेश जी की सूंड बाएं हाथ की ओर घुमी हुई होनी चाहिए। वास्तुशास्त्र के अनुसार गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीरों को घर में लगाते समय यह ध्यान रखें कि गणेश जी को किस दिशा में और कहां पर विराजमान करना आपके लिए लाभप्रद रहेगा। गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीर जब घर लाएं तो सबसे पहले यह ध्यान रखें कि गणेश जी की सूंड बाएं हाथ की ओर घुमी हुई हो। दाएं हाथ की ओर मुड़ी हुई सूंड वाली गणेश जी की प्रतिमा की पूजा से मनोकामना सिद्ध होने में देर लगती है। क्योंकि इस तरह की सूंड वाले गणेश जी देर से प्रसन्न होते हैं। गणेश जी एक हाथ वरदान की मुद्रा में हो और साथ में उनका वाहन मूषक भी होना चाहिए। शास्त्रों में देवताओं का आवाहन इसी रुप में होता है। जो लोग संतान सुख की कामना रखते हैं उन्हें अपने घर में बाल गणेश की प्रतिमा या तस्वीर लानी चाहिए। नियमित इनकी पूजा से संतान के मामले में आने वाली विघ्न बाधाएं दूर होती है। घर में आनंद उत्साह और उन्नति के लिए नृत्य मुद्रा वाली गणेश जी की प्रतिमा लानी चाहिए। इस प्रतिमा की पूजा से छात्रों और कला जगत से जुड़े लोगों को विशेष लाभ मिलता है। इससे घर में धन और आनंद की भी वृद्घि होती है। गणेश जी आसान पर विराजमान हों या लेटे हुए मुद्रा में हों तो ऐसी प्रतिमा को घर में लाना शुभ होता है। इससे घर में सुख और आनंद का स्थायित्व बना रहता है। सिंदूरी रंग वाले गणेश को समृद्घि दायक माना गया है, इसलिए इनकी पूजा गृहस्थों एवं व्यवसायियों के लिए शुभ माना गया है। वास्तु विज्ञान के अनुसार गणेश जी को घर के ब्रह्म स्थान (केंद्र) में, पूर्व दिशा में एवं ईशान में विराजमान करना शुभ एवं मंगलकारी होता है। इस बात का ध्यान रखें कि गणेश जी की सूंड उत्तर दिशा की ओर हो। गणेश जी को दक्षिण या नैऋत्य कोण में नहीं रखना चाहिए। इस बात का ध्यान रखें कि घर में जहां भी गणेश जी को विराजमान कर रहे हों वहां कोई और गणेश जी की प्रतिमा नहीं हो। अगर आमने सामने गणेश जी प्रतिमा होगी तो यह मंगलकारी होने की बजाय आपके लिए नुकसानदेय हो जाएगी।
सोमवार, 24 अक्टूबर 2016
ग्रुप के नियम भक्तिदर्पण ग्रुप में आपका स्वागत है। कृपया ध्यान पूर्वक ग्रुप के विषय में पढे व ग्रूप के नियमों का अवलोकन कर लेवें। यह ग्रुप पूरी तरह से केवल भगवद्भक्तों के लिए है एवं हमारी वेबसाईट http://www.bhaktidarpan.in/ से सम्बंधित है। अतः केवल भगवद्भक्त ही इस ग्रुप से जुड़े। कृपया निम्नलिखित ग्रुप के नियमों को ध्यान पूर्वक पढ़ कर ही ग्रुप से जुड़े। 1. ग्रुप में केवल भक्ति मैसेज ही पोस्ट करें, अन्य क़ोई भी मैसेज या पिक्चर चाहे कितना भी अच्छा हो, ग्रुप में पोस्ट ना करें। 2. ग्रुप में पर्सनल मेसेज न करें या किसी भी प्रकार का वाद-विवाद ना करे, यदि किसी मैसेज या ग्रुप मेंबर से कोई परेशानी या आपत्ति हो तो केवल ग्रुप एडमिन से संपर्क करें। कीसी भी पोस्ट को नैतिक-अनैतिक घोषित करने का अधिकार संचालक मंडल के पास रहेगा। 3. ग्रुप के आईकन एवं नाम के साथ छेड़छाड़ ना करें। 4. किसी भी प्रकार के धर्मविरोधी या राजनीतिक मैसेज या किसी भी धर्म जाती समुदाय या व्यक्ति के भावना को क्षति पहुचने वाला पोस्ट करना वर्जित है । 5. ग्रुप के किसी भी सदस्य से डायरेक्ट बात या मैसेज ना करे। 6. ग्रुप में किसी भी प्रकार के विज्ञापन, शायरी, चुटकुले आदि पोस्ट न करें। 7. ग्रुप में किसी अव्यहारिक, अमर्यादित शब्दों वाला, पोस्ट करना वर्जित है, ऐसा करने पर सम्बंधित सदस्य को तत्काल ग्रुप से रिमुव कर दिया जायेगा। जिसके लिए सदस्य स्वयं जिम्मेदार होगा। 8. ग्रुप में सभी को सक्रिय रूप से सहभागिता प्रदान करना अतिआवश्यक है। जो भी ग्रुप में अपनी सहभागिता प्रदान नहीं करेंगें उसे इस ग्रुप से कभी भी बाहर किया जा सकता है। जिसके लिए वह सहभागी जिम्मेदार रहेगा। 9. ग्रुप में महिलाओं की भी सहभागिता है। अतः उनकी मर्यादा को ध्यान में रखना अति आवश्यक है। 10. किसी भी मैसेज को कॉपी-पेस्ट या फॉरवर्ड करते समय कृपया उसे अच्छी तरह पढ़ व समझ लें। ग्रुप नियम एवं शर्ते को तत्काल प्रभावशील माना जाय। ग्रुप के नियम समय-समय पर आवश्यकतानुसार परिवर्तित किये जा सकते हैं, जो सभी ग्रुप मेंबरो को बताते रहेंगे। ग्रुप के किसी भी नियम का उलन्घन किये जाने पर बिना किसी पूर्व सूचना के सम्बंधित मेंबर को ग्रुप से निष्काषित किया जा सकता है। इस ग्रुप को धार्मिक, अध्यात्मिक, वैदिक-शास्त्रीय ज्ञान का आदान-प्रदान,प्रसार-प्रचार के उद्देश्य से बनाया गया है। इसलिये कृपया ग्रुप में भक्ति पूर्ण वातावरण बनाये रखने में सहयोग प्रदान करें। यह ग्रुप मात्र धार्मिक है। जो "भक्ति दर्पण" के नाम से जनोपयोग हेतु समर्पित है। || जय सियाराम ||
रामानन्द (रामावत सम्प्रदाय ) क्र.सं. द्वारा गौत्र 1 अग्रावत 2 अनन्तानन्दी 3 अनुभवानन्दी – लश्करी गौत्र के बारे सक्षिप्त टिप्पणी निम्नलिखित है।। लश्करी गौत्र के अनुसार लश्करी चार है परंतु मुख्य रूप से "अनुभावानंदी"है बाकी के तिन निम्नलिखित है (1) .भावानंदी (2)सुखानंदी (3) सुरसरानंदी लश्करी गौत्र का उदय जगद्धगुरू वीरजानंदाचार्यजी के परम् एवं कृपापात्र शिष्य श्रीबालानंदाचार्यजी महाराज के चरण कमलो से इस गौत्र का उदय हुआ है। बात उस समय की है जब शैव ब्राह्मणो ने वैष्णव ब्राह्मणो पर अत्याचार क्या यह बात गुरूदेव को पता नही था परंतु जब गुरूदेव को पता चला की वैष्णवो पर घोर अत्याचार हो रहा है तब गुरूदेवश्रीबालानंदाचार्यजी चौकी पर विराजमान होकर अपने मष्त पर उध्व्रपुड्रतिलक कर रहे थे उस समय तिलक में रक्त तिलक अर्थात् कुंकुम् का तिलक जल्दबाजी न क्या बल्कि उस जगह शुष्क चंदन का तिलक कर दिया ओर शैव ब्राह्मणो पर यौद्ध कर दिया।। ओर उस युद्ध में समस्त वैष्णव (लश्करी)अर्थात् विजय हो गये।। इस कारण उस समय गुरू देव बालानंदजी के कहने से इस गौत्र का नाम "लश्करीअनुभावानंदी"पडा ओर उस तिलक का नाम भी "लश्करीतिलक "पड गया।। आज भी अनुभावानंदीयो को लश्करी कहा जाता है ओर आज भी लश्करी गौत्र के अनुयाई यही तिलक करते है।। लश्कर का अर्थ है सेना, व लश्करी का अर्थ है सैनिक ! प्रश्न है कि लश्करी क्या है व कौन हैं तथा इनका नाम लश्करी क्यों पड़ा ? लश्करी वे साधु, सन्यासी थे जो अनुभवानन्दाचार्य जी द्वारा गठित लश्कर (सेना) में सम्मीलित थे, बात उस समय की है जब दशनामी, शैव व शाक्त वैष्णव धर्म का समूल विनाश करने व उसे दबाने के लिये वैष्णवों के रक्त के प्यासे थे, वे वैष्णवजन को जहां मिलते जान से मार डालते थे ! इन परिस्थितियों में ज.गु.श्री रामानन्दाचार्य जी के प्रशिष्य श्री अनुभवानन्दाचार्य ने लश्कर (सेना) की स्थापना की ताकी इन शैवो, दशनामीयों व शाक्तों से वैष्णव धर्म की रक्षा की जा सके ! इस लश्कर में श्री भावानन्दाचार्य जी के शिष्य, अनुभनानन्दाचार्य जी के शिष्य, सुरसुरानन्दाचार्य जी के शिष्य, दानोदराचरार्य जी के शिष्य, हनुमदाचार्र्य जी के शिष्य, व केवलरामाचार्य जी के शिष्य, क्रमश: भावानन्दी, अनुभवानन्दी, सुरसुरानन्दी, धून्ध्यानन्दी, हनुमानी, व कुबावत आदि को मिलाकर संयुक्त नाम लश्करी पड़ा ! जिनके द्वाराचार्य जी भी हैं व द्वारा स्थान भी ! वर्तमान इस गौत्र कि द्धारापिठ जयपुर के चादँपोल में "बालानंदमठ" के नाम से प्रसिद्ध है ओर वर्तमान आचार्य जगद्धगुरू श्री1008लक्ष्मणनंदाचार्यजी है इनके गुरू श्रीरामचरणाचार्यजी थे।। बालानंदमठ की परम्परा- बालानंदाचार्यजी गौविन्दनंदाचार्यजी गंभिरानंदाचार्यजी सेवानंदाचार्यजी रामानन्दाचार्यजी ग्यानानंदाचार्यजी माधवनंदाचार्यजी रामकृष्णनंदाचार्यजी रामचरणानंदाचार्यजी लक्ष्मणनंदाचार्यजी महाराज जय श्रीराम बालानंदाचार्यजी की मठ परम्परा अब अनुभावानंदाचार्यजी मठ परम्परा अनुभावानंदाचार्यजी कमनंनाचार्यजा विमलानंदाचार्यजी रामसुधिरानंदाचार्यजी विचित्रानंदाचार्यजी विठ्ठलानंदाचार्यजी वल्लभानंदाचार्यजी ब्रह्मानंदाचार्यजी विरजानंदाचार्यजी बालानंदाचार्यजी वल्लभानंदाचार्यजी द्धारा सग्रहित 444श्लोको का "विष्णु भक्ति चन्द्रोदय"आज भी बालानंदमठ में पुस्तकालय में उपलब्ध है। 4 अलखानन्दी 5 कर्मचन्दी 6 कालू जी 7 कीलावत 8 कुबावत 9 खोजी जी – खोजीजी गौत्र की जानकारी -श्रीसम्प्रदाय सरोज विभाकर आचार्य-चूणामणि श्रीखोजी द्धारापिठ संस्थापक जगद्धगुरू सर्वतन्त्र श्रीचतुर्दास,श्रीराघवेन्द्रदासाचार्य चरण आदिक नामधेयवान अन्नत स्वामी श्रीखजोजी महाराज श्रीसम्प्रदाय के महान् संत हो गये है।आपका जन्म सोलहवीँ सदी में मार्गर्शीष में सुदी पुर्णीमा के दिन राजस्थान के किशनगढ जिले के अन्तर्गत ईटाखोई ग्राम निवासी वत्स गोत्रिय श्रीचेतनदासजी लापस्या जोशी के यहाँ एक श्रीवैष्णव महात्मा की सेवा के प्रतिफल स्वरूप हुआ था आप अन्नय श्रीसद्गरू चरणाविन्द निष्ठ भावुक प्रविण महापुरूष थे। श्रीस्वामीजी खोजीजी महाराज एसे ही निर्मल संत थे,आपके श्रीगुरूदेव स्वामीमाधवदासजी महाराज बडे ही प्रभु सेवा परायण संत थे,आपने प्रथम ही सभी शिष्यों को सुचित कर रखा था कि,"में जब दिव्यधाम में आराध्य श्रीसितारामजी की सेवा में प्राप्ति होगी तब मंदिर में घडीघण्टे अपने आप ही बज उठंगे"परंन्तु आपके देहावासन पश्चात् ऐसा नही हुआ।इसका कारण अपने शिष्य की निष्ठा का प्रभाव विस्तार करना था ओर भक्त की अन्तिम अणु मात्र भी अभिलाषा प्रभु पुर्ण करते है यह प्रत्यक्ष दिखलाना था। श्रीराघवेन्द्रदासजी(खजोजी)महाराज कही बाहर गये थे।प्रभु कृपा से ठीक उसी समय स्थान में
रामावत समप्रदाय
रामानन्द (रामावत सम्प्रदाय ) क्र.सं. द्वारा गौत्र 1 अग्रावत 2 अनन्तानन्दी 3 अनुभवानन्दी – लश्करी गौत्र के बारे सक्षिप्त टिप्पणी निम्नलिखित है।। लश्करी गौत्र के अनुसार लश्करी चार है परंतु मुख्य रूप से "अनुभावानंदी"है बाकी के तिन निम्नलिखित है (1) .भावानंदी (2)सुखानंदी (3) सुरसरानंदी लश्करी गौत्र का उदय जगद्धगुरू वीरजानंदाचार्यजी के परम् एवं कृपापात्र शिष्य श्रीबालानंदाचार्यजी महाराज के चरण कमलो से इस गौत्र का उदय हुआ है। बात उस समय की है जब शैव ब्राह्मणो ने वैष्णव ब्राह्मणो पर अत्याचार क्या यह बात गुरूदेव को पता नही था परंतु जब गुरूदेव को पता चला की वैष्णवो पर घोर अत्याचार हो रहा है तब गुरूदेवश्रीबालानंदाचार्यजी चौकी पर विराजमान होकर अपने मष्त पर उध्व्रपुड्रतिलक कर रहे थे उस समय तिलक में रक्त तिलक अर्थात् कुंकुम् का तिलक जल्दबाजी न क्या बल्कि उस जगह शुष्क चंदन का तिलक कर दिया ओर शैव ब्राह्मणो पर यौद्ध कर दिया।। ओर उस युद्ध में समस्त वैष्णव (लश्करी)अर्थात् विजय हो गये।। इस कारण उस समय गुरू देव बालानंदजी के कहने से इस गौत्र का नाम "लश्करीअनुभावानंदी"पडा ओर उस तिलक का नाम भी "लश्करीतिलक "पड गया।। आज भी अनुभावानंदीयो को लश्करी कहा जाता है ओर आज भी लश्करी गौत्र के अनुयाई यही तिलक करते है।। लश्कर का अर्थ है सेना, व लश्करी का अर्थ है सैनिक ! प्रश्न है कि लश्करी क्या है व कौन हैं तथा इनका नाम लश्करी क्यों पड़ा ? लश्करी वे साधु, सन्यासी थे जो अनुभवानन्दाचार्य जी द्वारा गठित लश्कर (सेना) में सम्मीलित थे, बात उस समय की है जब दशनामी, शैव व शाक्त वैष्णव धर्म का समूल विनाश करने व उसे दबाने के लिये वैष्णवों के रक्त के प्यासे थे, वे वैष्णवजन को जहां मिलते जान से मार डालते थे ! इन परिस्थितियों में ज.गु.श्री रामानन्दाचार्य जी के प्रशिष्य श्री अनुभवानन्दाचार्य ने लश्कर (सेना) की स्थापना की ताकी इन शैवो, दशनामीयों व शाक्तों से वैष्णव धर्म की रक्षा की जा सके ! इस लश्कर में श्री भावानन्दाचार्य जी के शिष्य, अनुभनानन्दाचार्य जी के शिष्य, सुरसुरानन्दाचार्य जी के शिष्य, दानोदराचरार्य जी के शिष्य, हनुमदाचार्र्य जी के शिष्य, व केवलरामाचार्य जी के शिष्य, क्रमश: भावानन्दी, अनुभवानन्दी, सुरसुरानन्दी, धून्ध्यानन्दी, हनुमानी, व कुबावत आदि को मिलाकर संयुक्त नाम लश्करी पड़ा ! जिनके द्वाराचार्य जी भी हैं व द्वारा स्थान भी ! वर्तमान इस गौत्र कि द्धारापिठ जयपुर के चादँपोल में "बालानंदमठ" के नाम से प्रसिद्ध है ओर वर्तमान आचार्य जगद्धगुरू श्री1008लक्ष्मणनंदाचार्यजी है इनके गुरू श्रीरामचरणाचार्यजी थे।। बालानंदमठ की परम्परा- बालानंदाचार्यजी गौविन्दनंदाचार्यजी गंभिरानंदाचार्यजी सेवानंदाचार्यजी रामानन्दाचार्यजी ग्यानानंदाचार्यजी माधवनंदाचार्यजी रामकृष्णनंदाचार्यजी रामचरणानंदाचार्यजी लक्ष्मणनंदाचार्यजी महाराज जय श्रीराम बालानंदाचार्यजी की मठ परम्परा अब अनुभावानंदाचार्यजी मठ परम्परा अनुभावानंदाचार्यजी कमनंनाचार्यजा विमलानंदाचार्यजी रामसुधिरानंदाचार्यजी विचित्रानंदाचार्यजी विठ्ठलानंदाचार्यजी वल्लभानंदाचार्यजी ब्रह्मानंदाचार्यजी विरजानंदाचार्यजी बालानंदाचार्यजी वल्लभानंदाचार्यजी द्धारा सग्रहित 444श्लोको का "विष्णु भक्ति चन्द्रोदय"आज भी बालानंदमठ में पुस्तकालय में उपलब्ध है। 4 अलखानन्दी 5 कर्मचन्दी 6 कालू जी 7 कीलावत 8 कुबावत 9 खोजी जी – खोजीजी गौत्र की जानकारी -श्रीसम्प्रदाय सरोज विभाकर आचार्य-चूणामणि श्रीखोजी द्धारापिठ संस्थापक जगद्धगुरू सर्वतन्त्र श्रीचतुर्दास,श्रीराघवेन्द्रदासाचार्य चरण आदिक नामधेयवान अन्नत स्वामी श्रीखजोजी महाराज श्रीसम्प्रदाय के महान् संत हो गये है।आपका जन्म सोलहवीँ सदी में मार्गर्शीष में सुदी पुर्णीमा के दिन राजस्थान के किशनगढ जिले के अन्तर्गत ईटाखोई ग्राम निवासी वत्स गोत्रिय श्रीचेतनदासजी लापस्या जोशी के यहाँ एक श्रीवैष्णव महात्मा की सेवा के प्रतिफल स्वरूप हुआ था आप अन्नय श्रीसद्गरू चरणाविन्द निष्ठ भावुक प्रविण महापुरूष थे। श्रीस्वामीजी खोजीजी महाराज एसे ही निर्मल संत थे,आपके श्रीगुरूदेव स्वामीमाधवदासजी महाराज बडे ही प्रभु सेवा परायण संत थे,आपने प्रथम ही सभी शिष्यों को सुचित कर रखा था कि,"में जब दिव्यधाम में आराध्य श्रीसितारामजी की सेवा में प्राप्ति होगी तब मंदिर में घडीघण्टे अपने आप ही बज उठंगे"परंन्तु आपके देहावासन पश्चात् ऐसा नही हुआ।इसका कारण अपने शिष्य की निष्ठा का प्रभाव विस्तार करना था ओर भक्त की अन्तिम अणु मात्र भी अभिलाषा प्रभु पुर्ण करते है यह प्रत्यक्ष दिखलाना था। श्रीराघवेन्द्रदासजी(खजोजी)महाराज कही बाहर गये थे।प्रभु कृपा से ठीक उसी समय स्थान में
रामावत सम्प्रदाय
रविवार, 23 अक्टूबर 2016
स्वामी रामानंद को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया। वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि - द्वविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद। यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत, ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध किया। ॥ आरंभिक जीवन ॥ स्वामी रामानंद का जन्म प्रयाग(इलाहाबाद) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सुशीला देवी और पिता का नाम पुण्य सदन शर्मा था। आरंभिक काल में हीं उन्होंने कई तरह के अलौकिक चमत्कार दिखाने शुरू किये.धार्मिक विचारों वाले उनके माता-पिता ने बालक रामानंद को शिक्षा पाने के लिए काशी के स्वामी राधवानंद के पास श्रीमठ भेज दिया. श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने वेद, पुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और प्रकांड विद्वान बन गये।पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने कठोर साधना की .उनके जन्म दिन को लेकर कई तरह की भ्रंतियां प्रचलित है लेकिन अधिकांश विद्वान मानते हैं कि स्वामीजी का जन्म 1400 ईस्वी में हुआ था। यानि आज से कोई सात सौ दस साल पहले. शिष्य परंपरा स्वामी रामानंद ने राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया. उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये. कबीर औऱ रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की.इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में चारो ओर आपसी कटूता और वैमनस्य का भाव भरा ङुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने नारा दिया-जात-पात पूछे ना कोई-ङरि को भजै सो हरी का होई. उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मताः का शंखनाद किया और भक्ति का मार्घ सबके लिए खोल दिया. उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया. उनके द्वारा स्थापित रामानंद सम्प्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णवों का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है। वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं। इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। यूं तो रामानंद सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में फैली हैं। लेकिन अयोध्या,चित्रकूट,नाशिक, हरिद्वार में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं। काशी के पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, दुनिया भर में फैले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो काशी का श्रीमठ हीं सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और रामानंद सम्प्रदाय का मूल आचार्यपीठ है। वर्तमान में जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज, श्रीमठ के गादी पर विराजमान हैं। वे न्याय शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं और संत समाज में समादृत हैं। भक्ति-यात्रा स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं की.वे पुरी औऱ दक्षिण भारत के कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार किया। पहले उन्हें स्वामी रामनुज का अनुयाय़ी माना जाता था लेकिन श्रीसम्प्रदाय का आचार्य होने के बावजूद उन्होंने अपनी उपासना पद्धति में ऱाम और सीता को वरीयता दी. उन्हें हीं अपना उपास्य बनाया.राम भक्ति की पावन धारा को हिमालय की पावन ऊंचाईयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया. वे भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने वैष्णव भक्ति साधना को नया आयाम दिया.उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी श्रीमठ, काशी में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों की आस्था का केन्द्र है। स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता गी.उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिसमें आनंद भाष्य पर टीका भी शामिल है।वैष्णवमताब्ज भाष्कर भी उनकी प्रमुख रचना है। चिंतनधारा भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म तथा वैष्णव भक्ति से संबद्ध वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैष्णव भक्ति के महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग सात सौ नौ वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने श्री सीताजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत (राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम तीव्रता प्रदान की. उन्हें उत्तरभारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के म
स्वामी रामानन्द चार्य
शनिवार, 22 अक्टूबर 2016
विवरण 'वैष्णव सम्प्रदाय' हिन्दू धर्म में मान्य मुख्य सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के लोग भगवान विष्णु को अपना आराध्य देव मानते और पूजते हैं।
अन्य नाम पांचरात्र मत, वैष्णव धर्म, भागवत धर्म
प्रारम्भ अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जब ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले उपासना प्रधान वैष्णव धर्म विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित था।
उपास्य देव वासुदेव
मान्य ग्रंथ श्रीमद्भगवद गीता
विशेष 'शतपथ ब्राह्मण'[1] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम 'पांचरात्र' पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', 'ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।
अन्य जानकारी भागवत धर्म भी प्रारम्भ में क्षत्रियों द्वारा चलाया हुआ अब्राह्मण उपासना-मार्ग था, परन्तु कालान्तर में सम्भवत: अवैदिक और नास्तिक जैन-बौद्ध मतों का प्राबल्य देखकर ब्राह्मणों ने उसे अपना लिया और 'वैष्णव' या 'नारायणीय धर्म' के रूप में उसका विधिवत संघटन किया।
वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम 'भागवत धर्म' या 'पांचरात्र मत' है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या 'भगवत' कहा गया है और भगवत के उपासक 'भागवत' कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। 'महाभारत'[2] के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है। 'नारद पांचरात्र' के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का 'रात्र' अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है। 'ईश्वरसंहिता', 'पाद्मतन्त', 'विष्णुसंहिता' और 'परमसंहिता' ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। 'शतपथ ब्राह्मण'[3] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।
प्रारम्भ
यह अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जिस समय ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले से अपेक्षाकृत शान्त, किन्तु स्थिर ढंग से एक उपासना प्रधान सम्प्रदाय विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित था। वैदिक परम्परा का इसने सीधा विरोध नहीं किया, प्रत्युत अपने अहिंसाप्रधान धर्म को वेद-विहित ही बताया। इस कारण कि उसकी प्रवृत्ति बौद्ध और जैन सुधार-आन्दोलनों की भाँति खण्डनात्मक और प्रबल उपचारात्मक नहीं थी, इस सम्प्रदाय की वैसी धूम नहीं मची। ई.पू. चौथी शती में पाणिनि की अष्टाध्यायी[4] के सूत्र से वासुदेव के उपासक का प्रमाण मिलता है। ई.पू. तीसरी-चौथी शती से पहली शती तक वासुदेवोपासना के अनेक प्रमाण प्राचीन साहित्य और पुरातत्त्व में मिले हैं।
प्रचलन
जैनों के सलाक पुरुषों में वासुदेव और बलदेव भी हैं तथा अरिष्टनेमि और वासुदेव के सम्बन्ध का भी उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में मिलता है। बौद्ध जातकों[5] में वासुदेव की कथा कही गयी है। बौद्ध साहित्य के 'चुल्लनिद्देस' मे आजीवक, निगंठ, जटिल बलदेव आदि श्रावकों के साथ वासुदेव को पूजने वाले वासुदेवकों का भी उल्लेख हुआ है, जिससे सूचित होता है कि यह सम्प्रदाय तीसरी-चौथी शती ई.पू. में विद्यमान था। इसी काल में चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा के यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने 'सौरसेनाई' (शौरसेनी) जाति में जो 'जोबेरीज' (यमुना) नदी के किनारे बसती थी और 'मेथोरा' (मथुरा) और क्लीसोबोरा (कृष्णपुर) जिसके प्रधान नगर थे, हेराक्लीज (कृष्ण) के विशेष रूप से पूजे जाने का उल्लेख किया है। 200 ई. पू. के वेसनगर (भिलसा) के एक स्तम्भ लेख के अनुसार बैक्ट्रिया के राजदूत हेलियाडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरुड़स्तम्भ का निर्माण कराया था। वह अपने को भागवत कहता था। ई.पू. पहली शती के नाणेघाट के गुहाभिलेख में अन्य देवताओं के साथ संकर्षण और वासुदेव का भी नामोल्लेख है। इसी समय का एक और शिलालेख चित्तौड़गढ़ के समीप घोसुण्डी में मिला है, जिसमें कण्ववंशी राजा सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर भगवान संकर्षण और वासुदेव के मन्दिर के लिए 'पूजाशिला-प्राकार' बनवाये जाने का उल्लेख है। मथुरा के एक महाक्षत्रप शोडास (ई.पू. 80-57) के समय के एक शिलालेख के अनुसार वसु नामक एक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान मथुरा) में भगवान वासुदेव का मन्दिर बनवाया था। इन प्रमाणों से सूचित होता है कि भागवत धर्म का सबसे पहला नाम 'व